#पल्स ऑक्सीमीटर,इंफ्रारेड थर्मामीटर की खरीद का मामला, घोटाले की गूँज जिले से चलकर सत्ताशीर्ष तक पहुंचनी शुरू.
अफसरनामा ब्यूरो
लखनऊ : कोरोना महामारी ने जहां देश की अर्थव्यवस्था को चौपट किया और आम जनजीवन के सामने संकट का दौर शुरू हुआ है वहीँ मुख्यमंत्री योगी की चिर परिचित भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टोलरेंस की नीति को भी सवालों के घेरे में ला खड़ा कर दिया है. कोरोना महामारी के नियंत्रण और प्रबंधन के लिए सूबे के शीर्ष नौकरशाहों को मिलाकर बनाई गयी प्रबंधतंत्र की टीम 11 के प्रमुख सदस्य मनोज कुमार सिंह अपर मुख्य सचिव पंचायती राज तथा ग्राम विकास विभाग जोकि नगरीय व ग्रामीण पेयजल,स्वच्छता एवं सेनेटाईजेशन समिति के लिए राज्य स्तर के नोडल अधिकारी भी हैं, का एक पत्र विवादों के घेरे में आ गया है.
पल्स ऑक्सीमीटर और इंफ्रारेड थर्मामीटर की खरीद में हुए राज्यव्यापी घोटाले की गूंज जिलों से शुरू होकर सत्ता शीर्ष तक पहुंचनी शुरू हो गई है. जिसका मुख्य कारण अपर मुख्य सचिव पंचायती राज मनोज कुमार सिंह का 24 जुलाई 2020 को पत्रांक संख्या 80/ए.सी.एस.आर.डी./पी.आर./2020 का वह पत्र है. जिसमें श्री सिंह ने नगर विकास विभाग के प्रमुख सचिव को लिखते हुए इंफ्रारेड थर्मामीटर और ऑक्सीमीटर की खरीद अलीगढ़ की CDO अनन्या झा द्वारा की गई खरीद की तरह 2800 रुपए में करने के निर्देश नगरी निकाय को देने के लिए कहा है. और इस संबंध में विस्तृत विचार विमर्श सीडीओ अलीगढ़ से करने की सलाह दी गई.
मीडिया में यह पत्र सार्वजनिक होने के बाद सवाल खड़े होने लगे हैं कि ACS पंचायतीराज ने सीधे जिलाधिकारियों और जिला पंचायतराज अधिकारियों को आक्सिमीटर और थर्मामीटर की खरीद प्रक्रिया और प्रति इकाई मूल्य के सम्बन्ध में स्पष्ट दिशा निर्देश क्यों नहीं जारी किये. क्योंकि खरीद में हुए घोटाले में जो प्रकरण सामने आ रहे हैं वह मनोज कुमार सिंह के मातहत जिला पंचायत अधिकारियों द्वारा किए गए औने पौने दामों की खरीद से जुड़े हैं.
सवाल यह है की शासन यदि शुरू में ही रेट निर्धारित करते हुए जिलाधिकारियों और जिला पंचायत राज अधिकारीयों को सीधे निर्देशित कर दिया होता तो अपनी ही सरकार पर मोर्चा खोलने वाले भाजपा विधायक देवमणि द्विवेदी और विपक्षी आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह के हाथ में यह मुद्दा न लगता और सरकार की किरकिरी होने से तो बचती ही साथ ही साथ खरीद घोटाले में की गई अनियमितता और भ्रष्टाचार को एक हद तक इस बीच में ही रोका जा सकता था.
प्रकरण में एक और शासनादेश शासन के पंचायतीराज विभाग द्वारा 1 अगस्त 2020 को पत्रांक संख्या 36/2020/1880/33-3-2020-40/2020 जारी किया गया. जिसके द्वारा वित्त आयोग से मिले रकम में से 299 करोड़ रुपया नगरीय निकायों जिसमें 50 फीसदी शहरी निकाय और 50 फीसदी ग्रामीण निकायों को सीधे ट्रांसफर किये गये. लेकिन इस शासनादेश में भी खरीद की प्रक्रिया व मूल्य के सम्बन्ध में किसी दिशा निर्देश का आभाव था. विपक्ष भी लगातार इसी सवाल को तूल देने में जुटा है कि जब कोरना नियंत्रण के प्रबंधन के लिए टीम 11 द्वारा प्रतिदिन समीक्षा बैठक की जाती है और उस बैठक में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से लेकर शामली तक के सीमान्त जिलों सहित अधिकाँश जिलों के नगरीय निकायों और ग्राम पंचायतों तक हो रही खुलेआम सरकारी धन की लूट की सूचना और आंकड़े मुख्यमंत्री के संज्ञान में न लाना प्रबंधन तंत्र की विफलता को दिखाता है.
शासन सत्ता के जानकार इस मामले को जिम्मेदारियों को एक दूसरे पर डालने की विकसित हो रही नई परिपाटी से जोड़कर देख रहे हैं. शासन स्तर से इस प्रकार जारी किए जा रहे पत्र नीचे के अधिकारियों तक अगर विपक्षी पार्टियों और सोशल मीडिया के माध्यम से पहुंचता है तो शासन सत्ता के शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगते हैं. और इसके लिए उनकी भी जिम्मेदारी बनती है.
नीति निर्धारण के आभाव में शासन द्वारा ससमय मूल्य का निर्धारण ना किए जाने के कारण की गई सरकारी धन की लूट के लिए यह पूरी कवायद ही जान पड़ती है. और इसमें शीर्ष जिम्मेदारी की भी जिम्मेदारी बनती है. क्योंकि उक्त उपकरण की खरीद की प्रक्रिया जेम पोर्टल के माध्यम से भी की जा सकती थी. जिसके लिए शासन के मुख्य सचिव ने 19 जून 2020 को ही एक शासनादेश जिसकी पत्रांक संख्या 23/2020/279/18-02-2020-97(ल.उ.)/2016 है, जारी कर दिया था.
फिलहाल गाजीपुर और सुल्तानपुर के डीपीआरओ को सस्पेंड किया जा चुका है और अन्य जनपदों के डीपीआरओ पर तलवार लटक रही है. लेकिन सत्ता शीर्ष पर बैठे नीति नियंताओं की यह नीति सरकार को कटघरे में खड़ा करती है, तो भ्रष्टाचार आदि के लिए जगह भी बनाती है. ऐसे में नीति नियंता भी प्रकरण में किसी तरह से कम दोषी नहीं है और उन पर भी सरकार द्वारा क्या कार्यवाही की जायेगी यह देखना दिलचस्प होगा.