#उत्तर प्रदेश में बचत की धनराशि और यू०सी० प्रमाण पत्र में हो रहा खेल.
#महालेखाकार और शासन के निर्देशों में झलक रही बेचारगी.
#अनुदानों की यू०सी० न देने वाले विभागों में पंचायतीराज, ग्राम्य विकास और समाज कल्याण सबसे आगे.
#हजारों करोड़ के उपयोगिता प्रमाण पत्र आज तक हैं नदारद.
#”अफसरनामा” पहले भी उठाता रहा है यह मुद्दा, अब जाकर सक्रिय हुआ वित्त विभाग.
राजेश तिवारी
लखनऊ : कोरोना संकट से कराह रही अर्थव्यवस्था को गति देने की मोदी और योगी सरकार की कवायद की कामयाबी के लिए जिस सख्त वित्तीय अनुशासन और प्रबंधन की जरूरत है सूबे की अफसरशाही उसे धता बताती दिख रही है. हालत ये है कि महालेखाकार और शासन का वित्त विभाग अनुदानों(ग्रांट) के माध्यम से सूबे के विभागों को सौंपी गयी धनराशि के उपयोग कर लेने का प्रमाण चाहते हैं और इसके लिये वर्ष 2011 से लगातार कागजी घोड़े भी दौड़ाये जा रहे हैं लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात की तर्ज पर मिले हैं. जितनी धनराशि का उपयोगिता प्रमाणपत्र संबंधित विभाग उपलब्ध कराते हैं उससे ज्यादा नया हिसाब किताब पेन्डिंग हो जाता है. अनुदानों की धनराशि को खर्च करने के बाद उपयोगिता प्रमाण पत्र उपलब्ध कराने में नाकाम रहे विभागों में ज्यादातर प्रकरण पंचायतीराज, ग्राम्य विकास तथा समाज कल्याण विभाग की अनुदानं से जुड़े बताये जाते हैं.
ताजा प्रकरण में सोमवार को शासन के वित्त लेखा अनुभाग ने अनुदानों के हिसाब- किताब को “समायोजित” करने के लिये समस्त संबंधित विभागों के प्रमुख सचिव व अपर मुख्य सचिवों को पत्र जारी किया है. सरकार से अनुदान लेकर वर्षों बाद भी उसके खर्च का हिसाब-किताब न दिए जाने पर महालेखाकार की आपत्ति साथ ही पिछले 19 वर्षों में स्वीकृत अनावर्ती सहायक अनुदानों के सापेक्ष 31 मार्च 2020 तक के सभी आवश्यक उपयोगिता प्रमाण पत्र उपलब्ध कराने के निर्देश के बाद सक्रिय हुआ वित्त विभाग. अपर मुख्य सचिव वित्त संजीव मित्तल ने महालेखाकार के इसी पत्र का हवाला देते हुए शासन के सभी अपर मुख्य सचिवों, प्रमुख सचिवों व सचिवों को पत्र लिखा है. उन्होंने कहा है कि अनावर्ती अनुदानों के सापेक्ष नियंत्रक अधिकारियों द्वारा उपयोगिता प्रमाण पत्र उपलब्ध न कराए जाने से असमायोजित अनुदानों की संख्या व राशि प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है. 25 अक्टूबर 2011, 6 फरवरी, 15 मई, 9 अगस्त व 13 नवंबर 2019 तथा 20 फरवरी 2020 को उपयोगिता प्रमाण पत्र उपलब्ध कराने के लिए शासन स्तर से निर्देश भी दिए गए लेकिन अनुदानों की काफी संख्या व रकम अभी तक असमायोजित पड़ी हुई है.
संकटकाल में धन की कमी से जुझती सरकारों के लिए इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि उसके अफसर एक तो अपने खर्च और बचत का सही-सही हिसाब नहीं देते, दूसरा जो खर्च दिखाया जाता है उसका उपयोगिता प्रमाणपत्र नही देते. जबकि किसी भी अनुदान के उपयोग की समय सीमा समाप्त हो जाने के बाद भी उन अनुदानों की बड़ी धनराशि अवशेष के रूप में महालेखाकार के आंकड़ों और कोषागारों के डाटा का अनुश्रवण करने वाले वित्तीय सांख्यकीय विभाग की जानकारी में रहता है. कई विभागों में सरकार ने ए०जी० के प्रतिनिधि भी तैनात कर रखे हैं. लेकिन योजनाओं के बंद होने के बाद भी उपयोगिता प्रमाणपत्र के उपलब्ध न होने और व्यय वाऊचर्स की बुकिंग जारी रहने के संबंध में कोई असरदार कदम उठाया गया हो ऐसा अभी तक दिखायी नही दिया.
जानकारों की माने तो उपयोगिता प्रमाणपत्र भेजने में लेटलतीफी से ही बचत की धनराशि को खपाया जाना आसान हो पाता है. बताते चलें कि ऐसे ही मुद्दों पर लोक लेखा समिति की बैठकों में कई बार गहन चिंतन किया जा चुका है जिसके संबंध में “अफसरनामा” ने भी अपनी तफ्तीश में खबरें चलायी थी. लेकिन जो अफसरशाही महालेखाकार और शासन की नहीं सुनती तो उससे कितनी अपेक्षा की जा सकती है? वैसे अगर सरकार बचत की धनराशि को अफसरों के चंगुल से छुड़ाकर सरकारी खजाने में ला पाने में कामयाब हो जाती तो कोरोना संकट के दौर में भी शायद सूबे की माली हालत में सुधार हो जाता.
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