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ग्रामीण अभियंत्रण विभाग में लैप्स बजट को छिपाने का जिम्मेदार वित्तनियंत्रक बना जांच अधिकारी

 

 

 

#शासनादेश 54/2018/783 (1)/92-2-2018/05.04.2018 से उठने लगे सवाल, मामले को उलझाने में लगे दोषी

अफसरनामा ब्यूरो 

लखनऊ : पिछली एक दशक से अधिकारियों की अनियमितताओं और मनमानेपन की भेंट चढ़े बिना बजट वाले ग्रामीण अभियंत्रण विभाग में भाजपा की योगी सरकार बनने के बाद जो सुधार और पारदर्शिता की उम्मीद थी लगता है वह एक कोरी कल्पना मात्र थी. फिलहाल शासन के आदेश संख्या 54/2018/783 (1)/92-2-2018,दिनांक : 05.04.2018 को देखकर तो यही लगता है जिसमें विभाग के वित्त नियंत्रक जिनकी भूमिका खुद इस प्रकरण में संदिग्ध है, को ही जांच अधिकारी नियुक्त कर दिया गया है. एक तरफ तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अफसरों को आगाह करते हैं कि आंकड़ों की बाजीगरी और हेराफेरी नहीं चलेगी वहीँ दूसरी तरफ ग्रामीण अभियंत्रण विभाग में की गयी आंकड़ों की हेराफेरी पर लीपापोती का सिलसिला जारी है और जिम्मेदार अफसर को ही जांच अधिकारी नियुक्त किया गया है.

ग्रामीण अभियंत्रण विभाग के जिम्मेदार अफसरों ने पहले तो बजट को लैप्स होने दिया और बाद में उसको शासन के संज्ञान में लाना भी उचित नहीं समझा. विधान मंडल की स्वीकृति के बाद जब शासन के वित्त विभाग से सूबे के हर विभागों को बजट रिलीज किया जाता है तो यह अपेक्षा रहती है कि जिम्मेदार पदों पर बैठे अफसर पूरी तन्मयता से वित्तीय अनुशासन को मानते हुए बजट का सदुपयोग करेंगे और अवशेष बजट को वित्त वर्ष की समाप्ति के पहले ही शासन को वापस समर्पित कर देंगे. लेकिन सूबे के बिना बजट वाले ग्रामीण अभियंत्रण विभाग के वित्त नियंत्रक द्वारा इसके इतर एक अलग ही कारनामें को अंजाम दिया गया था.

फिलहाल शासन के जांच सम्बन्धी इस पत्र ने कई सवाल खड़े किये हैं और कहीं न कहीं वित्त नियंत्रक को बचाने की कवायद की जा रही है. विभागीय मंत्री की संस्तुति के बाद प्रमुख सचिव द्वारा जारी इस आदेश में इस बात की अनदेखी की गयी है कि उक्त प्रकरण में सीधी जवाबदारी वित्त नियंत्रक की भी बनती है और शासन ने उसी को जांच अधिकारी नियुक्त किया है. ऐसे में यह आदेश तमाम तरह के सवाल खड़े करता है और मामले की लीपापोती करने की तरफ इशारा करता है. जिस बजट की धनराशी को न खर्च किया गया और न ही उसका समर्पण किया गया बल्कि उक्त धनराशी को लेकर आंकड़ों की हेराफेरी करते हुए शासन को झूठी सूचना प्रेषित की गयी थी और  खर्च न किये गए राज्य के लेखों में बचत के रूप में न दिखाने से सरकारी के राजस्व लेखे को ही गलत करा दिया गया. ऐसे वित्त नियंत्रक से विभाग ने स्पष्टीकरण पूछना भी उचित नहीं समझा और मामले में सीधी भूमिका रखने वाले अधिकारी को बचाने की मंशा से लीपापोती करते हुए मात्र आहरण-वितरण अधिकारी की भूमिका को संदिग्ध मान लिया गया और जिनकी जांच कराई जानी थी उन्हीं वित्त नियंत्रक को प्रकरण का जांच अधिकारी नियुक्त कर दिया गया. जाहिर है कि बिना राजनैतिक संरक्षण के ऐसा संभव नहीं दिखता. अफसरनामा पहले भी इस प्रकरण को उठाते हुए वित्त नियंत्रक की कार्यप्रणाली और निष्पक्षता पर सवाल कर चुका है ऐसे में इस आदेश ने इसकी पुष्टि की है.

दरअसल पूरा मामला यह है कि वित्त वर्ष 2016-17 के लिए अधिकारी,कर्मचारी के वेतन और भत्ते तथा गाडी आदि के लिए  शासन से स्वीकृत किये गए रूपये 350.32 करोड़ रूपये के बजट से है. जिसमें से 275.45 करोड़ रूपये का आवंटन विभाग के जिलास्तरीय कार्यालयों तथा मुख्यालय पर तैनात डीडीओ को किया गया था. शेष बचे 74.87 करोड़ का समर्पण शासन के वित्त विभाग को कर दिया गया.  यहाँ तक तो ठीक था लेकिन इसके बाद मुख्यालय पर तैनात डीडीओ अशोक कुमार, अधिशाषी अभियंता के निवर्तन पर  जो बजट रिलीज  किया गया था उसमें से लगभग 34.96 लाख रूपये को न तो खर्च किया गया और न ही वापस सरेंडर ही किया गया. सरेंडर किये गए 74.87 करोड़ में गाडी आदि की खरीद के लिए रिलीज किये गए उक्त 34.96 लाख रूपये की रकम शामिल नहीं थी.  निदेशालय स्तर पर फिर लैप्स बजट को दूसरे विभाग के पीएलए खाते में ट्रांसफर करने का प्रयास शुरू हुआ, जोकि किसी भी तरह से नियमानुकूल नहीं था. क्यूंकि ग्रामीण अभियंत्रण विभाग में कोई पीएलए (Personal Ledger Account) एकाउंट की व्यवस्था लागू नहीं है, इसके अलावा जिस विभाग में पीएलए व्यवस्था है भी वहां पर भी एक वर्ष के लैप्स बजट को उसके अगले वर्ष में पीएलए में ट्रांसफर की अनुमति नहीं है.

पूर्व में अफसरनामा ने उठाये थे सवाल पढ़ें :-

ग्रामीण अभियंत्रण विभाग में की जा रही लैप्स बजट को छिपाने की कोशिश

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